Tuesday, July 19, 2011

संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन चाहती है

संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन चाहती है
मनमोहन सिंह सरकार में जो नए मंत्री आए हैं, उन्हें तो अभी अपने को सिद्ध करना है, लेकिन यह सिद्ध हो चुका है कि जो सात मंत्री हटाए गए, वे मंत्रिमंडल में स्थान पाने योग्य नहीं थे। जो मंत्री अब आए हैं, उनमें कोई ऐसा नहीं हो, यह प्रभु से प्रार्थना करने की बात होती है, चूंकि जिस व्यवस्था में से नए मंत्री आए हैं, उसी से वे भी आए थे, जो अब हटाए गए हैं। अतएव, मुख्य विषय व्यवस्था का हो जाता है। इसके पहले यह स्पष्ट कर लें कि जो परिवर्तन हुए हैं, वे नगण्य नहीं हैं। 78 में से 30 मंत्री प्रभावित हुए हैं। इनमें मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी की चली, और जो सर्वश्रेष्ठ मानवीय सामग्र्री उपलब्ध हो सकती थी, उससे राष्ट्र को वंचित रखा गया है। बहुत ही भौंडा उदाहरण है, लगता है- एक रोटी है, उसे नोच-नोच कर जिसकी चली, उसने उतनी झपट ली है। देश का ध्यान, जो सर्वोपरि होना चाहिए था, उतना नहीं रखा गया है। यह इस बार भर की समस्या नहीं है। जो निर्वाचित होकर मंत्री और प्रधानमंत्री पिछले छ: दशकों से बने, उन्हीं को तो दोषी माना जाएगा इस दुर्दशा का, जिसका सामना इस समय देश को करना पड़ रहा है। भारत की परिस्थिति हजार साल के आक्रमणों और आधिपत्यों के कारण ऐसी हो गयी थी कि श्रेष्ठतम प्रतिभा और चरित्र की शासन में आवश्यकता थी। इसे पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने समझा था, और स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में भारत राष्ट्र की उत्कृष्ट प्रतिभा का प्रतिनिधित्व हुआ था, जिनमें कई कांग्र्रेस के बाहर के थे। यह उदारता नहीं, इसकी स्वीकृति थी कि भारत की समस्याएं विकट हैं, भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा की इसके लिए जरूरत है। यह क्रम धीरे-धीरे टूटता गया, और इस समय इस पर आ गया है कि जिस सांसद को पूरे एक कार्यकाल का भी अनुभव नहीं है, उसे मंत्रिमंडल में ले लिया जाता है।
मंत्री और मंत्रिमंडल कैसा हो, उसमें नियुक्तयां कैसे करें, कौन उन पर निरीक्षण रखे, इसका संघर्ष स्वतंत्र भारत की सरकार बनते ही प्रारंभ हो गया था। यह खुलकर उस कांग्र्रेस अधिवेशन में सामने आया, जो स्वतंत्रता के बाद पहली बार हुआ था, जयपुर में। उसमें विषय निर्वाचनी समिति ने एक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था, जिससे निरीक्षण और नियंत्रण अंतत: कांग्र्रेस के हाथ में रहने को था। विषय निर्वाचनी समिति वही होती है, जो महासमिति होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि यही कांग्र्रेस का अधिकृत मंतव्य था। जब यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ, जवाहर लाल जी उपस्थित नहीं थे, वे आए, उन्हें जब स्वीकृत प्रस्ताव के संबंध में बताया गया, तो वे बहुत खफा हुए- ‘यह हो कैसे सकता है!’ ...और विषय निर्वाचनी समिति का अधिवेशन फिर से बुलाया गया, और स्वीकृत प्रस्ताव को पलट दिया गया। जवाहर लाल जी ऐसे ही चमत्कारी व्यक्ति थे। परंतु, वे भी व्यक्ति थे, आदमी थे, सीमाएं इसकी होती हैं। मंत्रिमंडल में ऐसे लोग आते गए, जो भारत का भार उठाने में समर्थ नहीं थे। कृष्णा मेनन को जिस तरह चीनी हमले के बाद जाना पड़ा, उससे सबको मालूम हो गया कि क्षमताहीन और विवादास्पद विश्वासविहीन व्यक्ति को मंत्री नहीं रखा जा सकता। कृष्णा मेनन जैसे व्यक्तित्व के साथ वे हैं, जिन्हें इस बार मंत्रिमंडल से हटाया गया है। कृष्णा मेनन में क्षमता, योग्यता, प्रतिभा और निष्ठा की कमी नहीं थी, सब तरह से वे योग्य थे, परंतु सबके साथ मिलकर चलने के वे आदी नहीं थे, अहमन्यता उनमें अधिक थी और वे दूसरों के अनुभव, ज्ञान, परामर्श का लाभ उठाने में असमर्थ रहते थे। जहाँ-जहाँ निर्वाचनीय व्यवस्था है, वहाँ-वहाँ यह सिद्ध हो रहा है कि निर्वाचित सदन को साथ और विश्वास में लेकर जो चल सकता है, वही शासन में सफल हो सकता है। इसमें व्यक्तिगत गुण महत्व रखते हैं, परंतु व्यक्ति का महत्व उससे भी अधिक हो जाता है। स्वयं मनमोहन सिंह इस समय इस वर्ग में आ गए हैं : उनसे अधिक बौद्धिक प्रतिष्ठा तथा व्यक्तिगत चरित्र का व्यक्ति क्या प्रधानमंत्री पद के लिए मिलेगा! इसके साथ यह है कि वे आर्थिक विशेषज्ञ हैं, और आर्थिक समस्याएं ही इस समय विकट हैं। उनके समय में यह आर्थिक आश्चर्य हुआ है कि अठन्नी से नीचे के सिक्के अस्वीकार्य हो गये हैं। यह धनाढ्यता का नहीं, निर्दयता का द्योतक है। भारत में एक तिहाई ऐसे हैं, जो दो वक्त का पूरा भोजन नहीं पाते : चवन्नी उनकी प्रतिनिधि थी। उसके लिए स्थान ही नहीं बचा है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि उनकी ओर इस समय के शासन का ध्यान नहीं है। पहले रोजगार गारंटी और अब सस्ती दर पर अनाज ऐसे निर्णय हैं, जो देश का कायाकल्प कर देंगे। परंतु, इससे नींव पक्की नहीं होती। क्रय-शक्ति बढ़नी चाहिए। इसमें कमी आ रही है, आत्महत्याएं हो रही हैं। इसे भली प्रकार समझा जाना चाहिए कि दूसरों की दया पर निर्भरता मनुष्य स्वभाव के प्रतिकूल होती है, और भारतीय संस्कृति तो इसके सर्वथा प्रतिकूल है। हमारे उपनिषदों में आया है- ‘याचना मत कर’। अब जो निर्धन हैं, उनकी समस्त सामाजिक व्यवस्था इस पर चलने पर निर्भर की जा रही है।
राजनीतिक क्षेत्र में भी यही हो रहा है। याचना को परिष्कृत करके कामना कर लें, उसकी धुरि पर समस्त व्यवस्था चल रही है। राजनीति में कौन आना चाहिए, यह व्यक्तिगत संबंध, महत्वाकांक्षा तथा व्यक्तिगत चातुर्य पर निर्भर कर लिया गया है। नीति कोई हो, चाहे राजनीति, चाहे शासन-नीति, पहले उसे जनता की सेवा की दृष्टि से परखना होगा। समय आ गया है, जब हमें समस्त व्यवस्था पर विचार और निर्णय करने होंगे। जो व्यवस्था स्वतंत्रता के साठ साल चली, वह नाकाफी रही है। गलत रही है,- यह कहना ही ज्यादा सही होगा। दिक्कत और दोष यह है कि इस व्यापक दृष्टि से इस समय विचार नहीं हो रहा है। क्रमश: भारतीय लोकतंत्र को पार्टीतंत्र बना लिया गया है, और पार्टी के भीतर एकतंत्र। इससे मुक्ति आसान नहीं है, चूंकि परस्पर स्वार्थ ने इसे मजबूत कर रखा है। फिर भी, भारत का सामान्य जन बेसमझ नहीं है, वह बेअसर भी नहीं है। इसके हाथ में एक अधिकार है- मतदान। उसका उपयोग करके वह क्रांतियां कर रहा है। परंतु, इसके आगे उसके कुछ अधिकार बनें, यह जरूरी हो गया है, जैसे- निर्वाचित सदस्यों की वापसी का अधिकार। जो व्यवस्था है, उसने स्थिति को स्वार्थ से ऐसा जकड़ लिया है कि निर्वाचन सुधार ही मूर्तरूप नहीं ले पा रहे। अब मामला आमूलचूल परिवर्तन का हो गया है। यह कौन करे, कैसे करे,- यह प्रश्न है। प्रश्न है, तो उत्तर है, अथवा उसे लाना होगा। आरंभ दो तरफ से करना होगा। पहले यह कि जो संसदीय व्यवस्था है, उसके दोष तथा दुर्बलताएं दूर की जाएं। (2) जो राजनीतिक दल इसमें भाग लेना चाहें, उनमें लोकतंत्र पुन: स्थापित किया जाए। जब सहकारी समितियों के लिए समान नियम बन सकते हैं, तो क्यों नहीं सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए समान नियम बन सकते? नियम ऐसे बनें कि बिना मौलिक लोकतंत्र के कोई राजनीतिक दल चल ही नहीं सके। हर राजनीतिक दल के आय-व्यय की जांच हो।
इससे भी आगे की बात है। शासन को राजनीति और पार्टीतंत्र से मुक्त किया जाए। राजनीति और पार्टीतंत्र अपनी सीमा में रहें- उन्हें जनता के सामने जाने का पूरा अधिकार हो, परंतु शासन में उनकी पहुँच तनिक भी नहीं हो। जो निर्वाचित हों, उन सबका शासन में प्रतिनिधित्व हो। निर्वाचित सब शासन संचालन के लिए होते हैं, पक्ष-प्रतिपक्ष का प्रश्न ही कहाँ रहता है! सदा देश में राष्ट्रीय सरकार रहे। इस समय की व्यवस्था में निर्वाचित सदन पार्टीबंदी से अवरुद्ध हैं : निर्वाचित होने के उपरांत किसी पार्टी का प्रभाव नहीं रहना चाहिए। सब मिलकर देश-उद्धार और देश-उत्थान की सोचें, और इसी दृष्टि से सारे काम करें। हमें अन्य देशों की ओर देखना बंद करना चाहिए, भारत को भारत के लिए उपयोगी व्यवस्था देनी चाहिए।

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